1894 के भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अंतर्गत जबरन, अनुचित और अन्यायपूर्ण तरीके से जमीन अधिग्रहण के अनुभवों के आधार पर,  विविध जन आंदोलनों के लम्बे संघर्ष के बाद भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 में  समुचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था. एक दशक तक चले अभूतपूर्व देशव्यापी परामर्श, संसद में और बीजेपी के नेतृत्व वाली दो स्थायी समितियों  में बड़े पैमाने पर बहस के बाद ही 2013 का यह भूमि अधिग्रहण अधिनियम बना,  उस वक्त वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष और उस वक्त स्थायी समिति की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के साथ बीजेपी तहेदिल से अधिनियम के समर्थन में थी, और खुलकर  इस कानून के प्रावधानों का समर्थन कर रहे थे.  और अब एक झटके में लोकतान्त्रिक ढांचे को अनदेखा करके, 2013 के अधिनियम के सभी लाभों को खत्म करते हुए, और 1894 के कानून पर वापस आने वाला अध्यादेश मोदी सरकार दुबारा लाई है. इससे, मोदी सरकार लोगों के हितों की पूरी अनदेखी करते हुए, किसी भी कीमत पर कॉर्पोरेट के हितों का विस्तार करने के अपने संकल्प की पुष्टि ही की है, और साथ ही इसमें इस बात का संकेत भी मिलता है कि मौजूदा कॉर्पोरेट-सरकार संबंधों में किसी भी तरह के पारम्परिक लोकतान्त्रिक और भारतीय संविधान के ढांचे के मूल्यों से परेशान नहीं किया जायेगा.

2015 का भूमि अध्यादेश पूरी तरह से,  समुचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013, का और अन्यायपूर्ण भूमि अधिग्रहण के खिलाफ सालों के संघर्ष का मजाक बना रहा है.

 

 

अध्यादेश 2015  मूल अधिनियम
1. अध्यादेश में  परियोजनाओं की एक विशेष श्रेणी (नया सेक्शन 10अ) बनाई गई है जिसमें सहमति लेने, सामाजिक प्रभाव आंकलन की जरुरत, विशेषज्ञ समूह से  समीक्षा कराने, बहुफसलीय/ खेती की जमीन लेने की  छूट है.

इस विशेष श्रेणी के पांच विषय/आइटम हैं: औद्योगिक गलियारे  और आधारभूत सुविधाओं वाली परियोजनाएं जिनमें पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप की परियोजनाएं शामिल हैं. अधिकांश अधिग्रहण इन्हीं दो श्रेणियों के अंतर्गत होने का असर यह होगा कि 2013 के मूल कानून के सुरक्षा उपाय पूरी तरह ख़त्म  हो जायेंगे.

‘सोशियल इन्फ्रास्ट्रक्चर’ को इस नई श्रेणी में शामिल किया गया था और बाद में सरकार द्वारा ही इसे वापस ले लिया गया.

2013 के कानून में इस तरह का कोई क्लॉज़ नहीं था. ये सभी गतिविधियाँ अध्याय 2 और 3 के लिए निर्धारित  प्रक्रिया को पूरा करने के लिए आवश्यक थीं.

सेक्शन 2(2) में परियोजना की मंजूरी हेतु (70-80%) प्रभावित परिवारों से सहमति लेना आवश्यक था.

एक नया प्रावधान जोड़ दिया गया है इससे सेक्शन 10अ से उन सभी निर्धारित गतिविधियों को हटा दिया गया है जो  सहमति के दायरे में आती थीं.

2. 10अ की नई श्रेणी में बचाव के नए सेक्शन जोडे गए हैं:  अध्यादेश के जरिये नये सेक्शन में दो नए प्रावधान सरकार ने जोड़े.

मूलतः इसके जरिये सरकार यह सुनिश्चित करने की कोशिश करती है कि परियोजना के लिए ली जाने वाली जमीन के लिए कम से कम सवालात हों. दूसरा प्रावधान सरकार को बंजर जमीन का सर्वेक्षण करने का आदेश देता है

2013 के कानून में मौजूद सामाजिक प्रभाव आंकलन को  असावधानी से  जोड़ा गया है.

परियोजनाओं को सामाजिक प्रभाव आंकलन प्रक्रिया के दायरे से बाहर रखने के लिए सरकार सामाजिक प्रभाव आंकलन की निर्धारित छह शर्तों में से एक शर्त को ही शामिल किया.

 

सामाजिक प्रभाव आंकलन को लागु करने की बजाय सरकार ने उसके प्रति उठने वाली चिंताओं को दबाने के लिए इसे सूक्ष्म और तुच्छ बना दिया.

3. पहले के क्लॉज़ में महत्वपूर्ण संशोधन सेक्शन 24(2) शामिल किया गया. सेक्शन में संशोधन करके मुकदमेबाजी के समय को बाहर रखा गया जहाँ स्थगन आदेश की अवधि को पूरा करना आवेदक के लिए जरूरी हो.

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मुआवजे की परिभाषा को अमान्य घोषित कर दिया गया.

2013 का कानून सेक्शन 24(2) जमीन पे सीधा कब्जा न होने या मुआवजा न दिए जाने की स्थिति में जमीन वापस लौटाने की अनुमति देता है.

अब आवेदकों के लिए नई आवश्यकताओं को पूरा करना और भी मुश्किल कर दिया गया.

कानून यह बताता कि देय मुआवजे का क्या आशय है इसे अदालतों पर छोड़ दिया गया. सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुआवजे से आशय है कोर्ट में या सीधा लाभार्थी के खाते में पैसे जमा करना.

4. नियमों का उल्लंघन करने वाले अधिकारीयों के खिलाफ कार्यवाही मंजूरी के बाद ही हो सकेगी. नए संशोधन में आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत सरकार से अनुमति मिलने के बाद ही कार्यवाही हो सकेगी. 2013 कानून की धारा 87 में अधिकारीयों को कानून को लागू करने के लिए ज्यादा जवाबदेह बनाया गया  और उल्लंघन किये जाने की स्थिति में दंड का प्रावधान भी है. किसी प्राधिकरण से पूर्व अनुमति लेने की जरुरत नहीं है.
5. उपयोग न हुई जमीन को लौटाने के प्रावधान को कमजोर किया गया.  अध्यादेश में संशोधन करके पांच साल की अवधि को खत्म करके ‘परियोजना की स्थापना की निर्धारित अवधि या पांच साल जो भी बाद में हो’ को किया गया. 2013 के कानून की धारा 101 में पांच साल तक जमीन का इस्तेमाल न होने पर वापस करने (जमीन के मालिक को या राज्य भूमि बैंक) की बात कही गयी.
6. सरकार को दो से पांच साल में कानून लागू करने का विशेष अधिकार. इससे कानून की व्याख्या करने के लिए जरुरी किसी भी कदम को सरकार ले सकती है. 2013 के कानून की धारा 113 में सरकार कानून पास होने के दो साल के बाद उसे लागू करने के लिए आवश्यक कोई भी कदम ले सकती है.
7. निजी संस्था’ की परिभाषा को विस्तारित किया गया ताकि स्वामित्व, साझेदारी, गैर-लाभ का संगठन या कोई अन्य संस्था को शामिल किया जा सके. इसका मतलब है कि ये संस्थाएं सरकार से सार्वजानिक उद्देश्य के लिए जमीन अधिग्रहित करने के लिए अनुरोध कर सकती हैं. 2013 का कानून या तो सरकारी संस्थाओं या सरकार के जरिये निजी कम्पनियों के लिए ही जमीन के अधिग्रहण की इजाजत देता है. अधिग्रहण का मतलब यह बिलकुल भी नहीं कि किसी भी संस्था के लिए निर्दयतापूर्वक जमीन ली जाये.
8. औद्योगिक गलियारों का विस्तार: सरकार ने औद्योगिक गलियारे के विस्तार की परिभाषा में नया संशोधन किया है अब औद्योगिक गलियारे में सड़क या रेलवे लाईन के एक या दोनों तरफ एक एक किलोमीटर जमीन लेने की बात कही गयी है     यह परियोजना गतिविधियों के वृहद विस्तार है जो अध्यादेश के जरिये पहले ही सरकार पेशा कर चुकी है.

सामाजिक प्रभाव आंकलन का भी यह उल्लंघन है जिसमें परियोजना के लिए कम से कम जमीन के विस्तार की बात कही गयी .

इसका बेहतरीन उदाहरण है यमुना एक्सप्रेस-वे, जिसमें एक्सप्रेस-वे परियोजना  के किसी भी तरफ अतिरिक्त जमीन  ली गई और बाद में उसे उत्तर प्रदेश में जेपी ग्रुप को दे दिया गया.

9. खेतिहर मजदूर के लिए अनिवार्य रोजगार . एक नया सेक्शन डालकर खेतिहर मजदूर के लिए रोजगार अनिवार्य किया गया. यह संशोधन गुमराह करने वाला, सतही और एकपक्षीय है. 2013 का कानून दूसरी अनुसूची के आइटम 4 के तहत अनिवार्य रोजगार देता है.

वास्तव में यह और अन्य लाभ, बड़ी संख्या में भूमिहीनों को दिए जाते जिनकी आजीविका प्रभावित होगी न कि सिर्फ खेतिहर मजदूर को (जिन्हें प्रभावित परिवार की श्रेणी में रखा गया ).

यह संशोधन संविधान की धारा 14 का उल्लंघन है क्योंकि यह  स्पष्ट किये बिना एक अलग तरह की प्रजाति बनाता है.

10. नया सेक्शन 67: अर्धन्यायिक प्राधिकरण अब भूमि अधिग्रहण पुनर्वास और पुनर्वसन प्राधिकरण के रूप में  जाना जायेगा जो उस जिले में सुनवाई करेगा, जहाँ अधिग्रहण किया जा रहा हो. इस संशोधन की जरूरत नहीं थी क्योंकि एलएआरआर प्राधिकरण एक स्वतंत्र निकाय है जो स्वतंत्र रूप से निर्णय ले सकता है.

हालाँकि, वास्तविक रूप में यह एलएआरआर प्राधिकरण की संरचना या कार्यों में कमी नहीं कर सका.

सम्पर्क :  9958797409, 9810423296, 9818905316, 9911955109

NAPM India