लाखों लोगों को घोर असुविधा और पीड़ा में धकेलने वाली ‘लॉकडाउन
संकट‘ से निपटे सरकार
भोजन, परिवहन, आय और काम के आजीविका के साधन की आवश्यकता है
19 मई, 2020: जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एन.ए.पी.एम.) भारत सरकार के बिल्कुल असंवेदनशील, गरीब-विरोधी और मजदूर-वर्ग विरोधी दृष्टिकोण की निंदा करता है, जो एक बार फिर पिछले 5 दिनों में प्रधान मंत्री और वित्त मंत्री द्वारा घोषित 20 लाख करोड़ रुपये के ‘मेगा आर्थिक पैकेज’ में परिलक्षित होता है। आत्म-निर्भरता’ केंद्र कर, सभी शब्द-नाटक के बावजूद, वर्तमान शासन ने ‘ लाखों मेहनतकश जनता को खुद तड़पने के लिए छोड़ दिया!एक अभूतपूर्व महामारी और बुरी तरह से प्रबंधित ‘लॉकडाउन’ के बीच में मेहनतकश लोगों को अपने नसीब पर छोड़ दिया गया हैं! इनकी सहायता करने के बजाय,‘राहत’ और ’विकास’ की आड़ में कई क्षेत्रों में कॉर्पोरेटकरण और निजीकरण के एजेंडे को आगे बढ़ाया जा रहा है |
अचानक एवं अनियोजित राष्ट्रीय तालाबंदी के देश पर लागू होने से हमने देश भर में संकट और विस्थापन के ऐसे स्तरों को देखा है जो इससे पहले अज्ञात थे। प्रवासी मज़दूरों की तस्वीरें, यह दृश्य दिखा रहे हैं कि किस तरह अपनी आजीविका खो चुके, बच्चों, बुजुर्गों और सामानों के साथ, तपती, चिलचिलाती धूप में सैकड़ों किलोमीटर पैल चल अपने घर कस्बों में वापस जाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसे इतिहास एक शर्मनाक काल के रूप में याद रखेगा। जब लाखों मनुष्यों को ऐसी तकलिफों का सामना करना पड रहा है, ‘शक्तिशाली’ सरकार इसे नज़रअंदाज़ कर रही है |
तालाबंदी के पहले सप्ताह में घोषित “प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना” (पी.एम.जी.के.वाई) बेहद अपर्याप्त थी और मई की शुरुआत में भी भोजन और नकदी हस्तांतरण पूरी तरह से लाभार्थियों के बड़े अनुपात में नहीं पहुंच पाया था! शहरों से प्रवासियों के निरंतर अपने गॉव मे जाने का प्रयास, सरकारों और नागरिक समाज संगठनों द्वारा संचालित भोजन केंद्रों में लगातार विस्तार होने वाली भीड़ और विभिन्न हेल्पलाइनों द्वारा प्राप्त की जा रही कभी न खत्म होने वाली त्रस्त फोन कॉल ने भी इन उपायों की गंभीर अपर्याप्तता को उजागर किया।
शुरू में केवल सड़क परिवहन की अनुमति देने के बाद, डेढ़ महीने पूरे होने पर कुछ श्रमिक स्पेशल ’ट्रेन की घोषणा की गई, ताकि प्रवासी वापस लौट सकें। परंतु, यह पूरी तरह से अराजक, गैर-पारदर्शी तरीके से भी किया गया । कई राज्यों में लोगों को टिकट के पैसे भी भुगतान करने की आवश्यकता रखी गई थी। कहीं से कोई सूचना या जानकारी ना मिलने से गरीब, लाचार मज़दूरों को बहुत परेशान होना पड़ा । हर तरफ यह स्थिति बनी हुई है कि यह पता ही नहीं चलता कि श्रमिक के सुरक्षित वापसी को सुनिश्चित करना किसकी जिम्मेदारी है। गृह राज्य और गंतव्य राज्य – दोनों कम से कम दायित्व के साथ इस विषय से दूर होने की कोशिश कर रहे हैं।
प्रवासी श्रमिकों के अलावा, किसानों और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों, छोटे और मध्यम उद्यमों में काम करने वाले लोगों के विभिन्न समूहों में आजीविका के नुकसान और परिणामस्वरूप खाद्य असुरक्षा की भी रिपोर्ट है। भी आर्थिक गतिविधियों के बंद होने से, आपूर्ति और वितरण श्रृंखलाएं बाधित हो गई हैं। यह स्पष्ट है कि गतिविधि को फिर से शुरू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा क्रय शक्ति की ओर निवेश और राजकोषीय व्यय के रूप में एक प्रमुख बढ़ावा की आवश्यकता होगी। सरल शब्दों में, लोगों के हाथों में सरकार को पैसा डालना चाहिए |
तीव्र संकट की इस स्थिति में, प्रधानमंत्री की 12 मई को अपने भाषण में “आत्मानिर्भर भारत” की घोषणा, जिसमें 20 लाख करोड़ या जीडीपी का लगभग 10% भाग आर्थिक पैकेज शामिल था, एक भव्य सपने की तरह लग रहा था । इस ‘पैकेज’ का ब्यौरा प्रेस कॉन्फ्रेंस के 5 दिनों में वित्त मंत्री द्वारा पता चला। उससे यह स्पष्ट हो गया है कि यह एक और ‘जुमला’ है! इस जुमले मे केंद्र सरकार लगभग कुछ भी नहीं कर रही है, परंतु ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे बहुत विशाल कुछ हो रहा हो! जैसा कि कई मीडिया रिपोर्टों में पहले ही लिखा जा चुका है, राजकोषीय व्यय के रूप में सरकार का ‘आउटगो’ लगभग लाख करोड़ आ रहा है जो वादा किए गए राशि का केवल 10% है ।
एक तरफ आर्थिक पैकेज वह सारे जरूरी खर्चें नहीं कर रहा है जो अर्थव्यवस्था को वर्तमान में मंदी का सामना करने की आवश्यक है। यह स्वयं में ही काफी अस्वीकार्य है । इसके अलावा, इस संकट को सरकार द्वारा ‘सुधारों’ (निजरीकरण) को धक्का देने के अवसर स्वरूप उपयोग किया जा रहा है। इससे और कुछ नहीं बल्कि मुनाफे के पक्ष में एवं मज़दूरों के खिलाफ नव-उदारवादी एजेंडा थोपा जा रहा है। उदाहरण के लिए कोयला क्षेत्र में वाणिज्यिक खनन, ऑर्डिनेंस फैक्ट्री बोर्ड का निगमीकरण और भारतीय हवाई क्षेत्र पर प्रतिबंध
हटाने की परिकल्पना इसी पैकेज में शामिल है। निजीकरण और पी.पी.पी की एक पूरी परिकल्पना की घोषणा इसमें शामिल है,जिसमें बिजली वितरण, सामाजिक बुनियादी ढांचे का परिवर्तन और यहां तक कि निजी क्षेत्र को इसरोकी सेवाओं का उपयोग करने की अनुमति दी गई है! जब इतने सारे सार्वजनिक क्षेत्र के संकट कालीन बिक्री और निजीकरण के मार्ग पर हैं, आत्म-निर्भर भारत’ एक क्रूर, अभावनीय धोखा है!
घोषित किए गए विभिन्न उपायों पर एक नजर से पता चलता है कि देश में महामारी और तालाबंदी के परिणाम स्वरूप,मौजूदा संकट के प्रति सरकार जान-बूझकर अनजान और असंवेदनशील है जबकि पैकेज में कई दीर्घकालिक उपाय और सुधार हैं, उनमें से कुछ वांछनीय भी हैं, परंतु वर्तमान में लोगों द्वारा सामना की जा रही कठिनाइयों को कम करने के लिए शायद ही कोई पदक्षेप हैं। स्थिति की तात्कालिकता की बेशुमार उपेक्षा समझ के परे है। शिक्षा का डिजिटलीकरण और स्वास्थ्य क्षेत्र के लिऐ अल्प निवेश एक ऐसे समय में जब हम एक स्वास्थ्य संकट का सामना कर रहे हैं, स्पष्ट रूप से दिखाता है कि पैकेज वर्तमान स्थिति मे ठोस कदमउठाने में पूरी तरह से विफल है!
लॉकडाउन उस समय आया जो कृषि के लिए बेहद महत्वपूर्ण था। इसके बावजूद, उपज को कई जगहों पर बाधित किया गया और जहाँ फसल पूरी हो गई थी, फसलों को बाजारों तक पहुँचाने में बाधाएँ खड़ी कर दी गई । रिपोर्टों से पता चलता है कि पिछले साल की तुलना में, इस साल मंडी गतिविधि बहुत कम है और यह भी कि कई किसानों को इतने कम कीमतों पर बेचने के लिए मजबूर किया गया है, जो उनकी लागतों की तुलना में बहुत कम है।
किसानों को समर्थन घोषित करके, सभी फसलों की अधिक से अधिक विकेन्द्रीकृत खरीदी, नकद हस्तांतरण के माध्यम से आय का समर्थन, उच्च एम.ए.सपी, अगले फसल के मौसम के लिए आदानों का समर्थन करने के बजाय, आर्थिक पैकेज में एकमात्र क्रेडिट कवरेज यानी ऋण पहुंच के विस्तार की बात कही गई । किसानों के लिए ऋण पहुंच का विस्तार एक प्रशंसनीय उद्देश्य है, परंतु यह मौजूदा संकट का जवाब देने के लिए पर्याप्त उपाय नही है। कृषि गतिविधियों को बंद करने के कारण किसानों को होने वाले नुकसान की भी भरपाई की जानी चाहिए, जो ‘फसल बीमा’ योजना के बावजूद नहीं हुआ है।
आर बी आई की एक 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के केवल 40 प्रतिशत छोटे और सीमांत किसान औपचारिक ऋण का लाभ उठा पाते है किसान क्रेडिट कार्ड (के.सी.सी) के माध्यम से रियायती ऋण को बढ़ावा देने की कोशिश की जा रहीं हैं । परंतु नाबार्ड के एन.ए.एफ.आई.एस सर्वेक्षण 2016-17 के अनुसार, केवल 10.5 प्रतिशत कृषि परिवारों के पास वैध के.सी.सी था।
इसके अलावा,’सुधारों ’को पैकेज के हिस्से के रूप में घोषित किया गया । इन सुधारों से केवल कृषि व्यवसाय और बहुराष्ट्रीय निगमों को लाभ होगा, न कि गरीब किसानों को। समुद्री और अंतर्देशीय मत्स्य पालन को विकसित करने के लिए २०२०-२१ से २०२४ २५ तक प्रधान मंत्री मत्स्य योजना (पी.एम.एम.एस.वाई) के माध्यम से मत्स्य पालन क्षेत्र के लिए २०,००० करोड़ रुपये आवंटन के भव्य घोषणा के बावजूद यह समझना ज़रूरी है कि यह योजना पूंजी प्रधान एवं निर्यात के पक्ष में हैं ।भूमिहीन और छोटे पैमाने के मछली श्रमिकों को इससे कोई लाभ नही होगा।
एम.एस.एम.ई क्षेत्र, जो कि आर्थिक पैकेज का केंद्रिक विषय था, ध्यान मुख्य रूप से केवल क्रेडिट-विस्तार उपायों पर है। छोटे मुद्रा ऋणों के लिए ब्याज का उपशमन एक सकारात्मक कदम है, परंतु यह याद रखना चाहिए कि इनमें से अधिकांश ऋण वैसे भी फायदा नहीं कमा पा रहे थे और उधारकर्ता चुकाने की स्थिति में नहीं थे। एम.एस.एम.ई को 3 लाख करोड़ के ऋण पर, इन उद्यमों के नए वर्गीकरण के साथ-साथ ऋण की शर्तों के बारे में कुछ साफ करना ज़रूरी है। ऐसा प्रतीत होता है कि ऋण के रूप में भी एम.एस.एम.ई को समर्थन सिफ्र उनको मिलेगा, जिनका 1 करोड़ या उससे अधिक का कारोबार है!
हालांकि, मूल विषय यह है कि ये सभी आपूर्ति-पक्ष हस्तक्षेप हैं, जिनमें से कई वांछनीय भी हो सकते हैं, लेकिन वे अभी के घोर संकट को संबोधित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। वर्तमान आर्थिक स्थिति में, जहां लोगों की क्रय शक्ति पर इतना भारी आक्रमण हुआ है, उत्पादकों को अपने माल की बाजार की मांग में गिरावट का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि नए ऋणों के लिए कोई मांग कैसे हो सकता है । आयात पर कटौती से बड़े भारतीय कॉरपोरेट्स को ही बढ़ावा मिल सकता है न कि विकेंद्रीकृत आर्थिक संस्थाओ को। ‘गृहउद्योग’ और ‘ग्रामोद्योग’ पर प्रधान मंत्री की तीखी बयानबाजी के बावजूद, ग्राम सहकारी समितियों या कोआपरेटिव के लिए पैकेज में कुछ खास नहीं है।
मूल विषय यह है कि अब तक घोषित आर्थिक पैकेज, वर्तमान संकट की स्थिति को सम्भालने में पूरी तरह से नाकामयाब है। हालांकि, इसमें कुछ वांछनीय पदक्षेप शामिल हैं, उदाहरण के लिए, प्रवासी श्रमिकों और शहरी गरीबों के लिए किफायती आवास परिसरों का निर्माण, ये सभी दीर्घकालिक योजनाएं हैं जिनका विवरण अब तक उपलब्ध नहीं है।
भूख की तत्काल स्थिति को संबोधित करने के लिए यह घोषणा की गई है कि 8 करोड़ प्रवासी श्रमिकों को दो महीने के लिए मुफ्त में 5 किलोग्राम अनाज और 1 किलो चना दाल दीया जाएगा । यह एक तो बहुत कम है, और इसके लिए भी बहुत देर हो चुकी है। विशेष रूप से, पी.एम.जी.के.वाई के तहत मार्च में घोषित दाल, कई राज्यों और लोगों तक अभी तक नहीं पहुंच पाई है ! अनुमान बताते हैं कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के तहत कवरेज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, अतिरिक्त 10 करोड़ लाभार्थियों को जोड़े जाने की आवश्यकता है (जो की 2020 की जनसंख्या का 67 प्रतिशत है )।
इस संकट में, बड़ी संख्या में लोगों को खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। मौजूदा स्थिति में चीजों को सरल बनाए रखने की आवश्यकता को देखते हुए और इसका ख्याल रखते हुए कि कोई वंचित न रहें, पी.डी.एस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) का सर्वव्यापीकरण करना आवश्यक है। इससे जो भी व्यक्ति अनाज के लिए राशन की दुकान पर पहुंचता है, यह परवाह किए बिना कि उसके पास वैध राशन कार्ड है या नहीं, उसे खाद्य सामग्री दिया जा जाता है । यह किसी भी पहचान पत्र के आधार पर दिया जा सकता है जो व्यक्ति के पास है। यह देखते हुए कि एफ.सी.आई के गोदामों में अभी भी 65 मिलियन टन से अधिक खाद्यान्न है और रबी फसल की खरीद संचालन जारी है, पी.डी.एस का अधिक मात्रा में अनाज के सार्वभौमिकरण एक ऐसा पदक्षेप है जिसे सरकार तुरंत घोषित कर सकती थी। बाजारी कीमत, अर्थात, 21/22 रूपये प्रति कि.ग्रा पर राज्य सरकारों को अनाज प्रदान करने के बजाय, उन्हें मुफ्त या एन.एफ.एस.ए कीमतों पर उपलब्ध कराना चाहिए, ताकि राज्य सरकारें सभी के लिए पी.डी.एस का विस्तार करने में सक्षम हों।
इसी प्रकार, मनरेगा का उपयोग कवरेज के विस्तार के लिए किया जा सकता है । प्रत्येक पंचायत में कार्य नियमित रूप से प्रदान करना, न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करना और एक घर को मिल सकने वाले काम के दिनों की सीमा को हटाना कुछ ऐसे तरीके है जिनसे लोगों को तुरंत कुछ राहत प्रदान की जा सकती है । इसके साथ ही, इसी प्लेटफ़ॉर्म का उपयोग लोगों के लिए आवश्यक नकदी हस्तांतरण करने के लिए भी किया जा सकता है। अर्थशास्त्री और सामजिक कार्यकर्ता कम से कम रूपये 7,000 / – प्रति माह प्रति परिवार नकद हस्तांतरण की सिफारिश कर रहे हैं। यह वृद्धावस्था, विकलांगता और विधवा पेंशन के सभी लाभार्थियों को भी किया जाना चाहिए। पी.डी.एस, मनरेगाऔर नकद हस्तांतरण जैसी योजनाएं देश भर के गरीब, किसानों और अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों में मांग पैदा करने में प्रभावी होंगी। यह न केवल इस संकट की स्थिति को दूर करने के लिए अच्छा है, यह सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए आवश्यक हैं।
घर पहुंचने के लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल रहे प्रवासी कामगारों का चित्र दिल दहला देने वाला है। परंतु यह ध्यान रखना चाहिए कि अन्य निम्न-आय और मध्यम आय वर्ग की अवस्था भी सोचनीय हैं, जो एक सर्वकालिक निम्न आर्थिक गतिविधि के शिकार हैं । सी.एम.आई.ई का अनुमान है कि कामकाजी आबादी के लगभग 1/4 , यानी 12 करोड़ लोग पहले से ही बेरोजगार हैं। आजीविका हानि के इस विशाल स्तर पर कई उपायों की आवश्यकता होती है, जिनमें से कोई भी वर्तमान पैकेज में उपलब्ध नहीं है। श्रमिक वर्ग द्वारा सामना किए जाने वाले गंभीर मुद्दों को संबोधित करने के बजाय, केंद्र और कई राज्यों ने सुरक्षात्मक श्रम कानूनों और नियमों को और कमजोर करने के लिए लॉकडाउन के कवर का उपयोग किया है। उपर से, व्यवसायों के इशारे पर, केंद्र ने तालाबंदी के दौरान श्रमिकों को मजदूरी का भुगतान करने के अपने 29 मार्च के आदेश को वापस ले लिया है । इससे पहले से ही अनिश्चित स्थिति और भी विपदा की हो गई है।
दुर्भाग्य की बात है, ‘आत्म-निर्भय भारत ’का अर्थ यह नहीं रहा कि सरकार लोगों को आत्मनिर्भर बनने के लिए सहायता दे रही है । बल्कि यह सरकार का लोगों को बताने का तरीका है कि उन्हें इस सकंट के क्षण में छोड़ दिया गया है और उन्हें किसी तरह से अपनी व्यवस्था खुद करना पडेगा ! यह वास्तव में सभी आंदोलनों, ट्रेड यूनियनों, जन संगठनों और आम जनता के लिए एक बड़ा आह्वान है कि वे वर्तमान शासन की गलत प्राथमिकताओं के खिलाफ संगठित हों और जो हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था में जनता का अधिकार है, उसका दावा करें।