पर्यावरण और वन के संचालन में केरल को अग्रणी भूमिका निभाना चाहिए: पश्चिम घाटी, चालाकुड़ी नदी और आदिवासी आजीविका को संरक्षित करो !
18th जून, 2020: जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय केरल सरकार से मांग करता है कि वो तुरंत पश्चिम घाटी के अति-संवेदनशील क्षेत्र में, पर्यावरण का विनाश करने वाली अथिराप्पली जल विद्युत परियोजना निर्माण के ‘पुनःजीवित प्रस्ताव’ को वापस ले। राज्य सरकार द्वारा केरल विद्युत बोर्ड को हाल में 7 साल के लिए दिए गए ‘अनापत्ती प्रमाण पत्र’ को लेकर हम कड़ी आपत्ती जताते हैं, जिसके आधार पर वो थ्रिसूर जिले में चालकुड़ी नदी पर 163-मेगावाट की परियोजना को लागू करने के लिए ‘नए सिरे से मंजूरी’ मांग सकें। व्यापक विरोध के चलते, सरकार का ये जवाब कि, एन.ऑ.सी (NOC) एक नियमित प्रक्रिया का हिस्सा है, खास तौर पर विश्वास नहीं दिलाता।
पिछले चार दशक के अपने विवादास्पद इतिहास में, इस परियोजना से होने वाले गंभीर संभावित सामाजिक-पर्यावरण संबंधी परिणामों के चलते इसका कड़ा विरोध होता रहा है। कम से कम दो बार पर्यावरण और तय प्रक्रियाओं के उल्लंघन की वजह से उच्च न्यायालय ने इस परियोजना की मंजूरी को ख़ारिज किया है। काफी शोध और वैज्ञानिक प्रमाण उपलब्ध हैं, जो इस परियोजना के अयोग्य होने की पुख्ता रूप से पुष्टि करते हैं। इनमें से, एक खास दस्तावेज़ है, पश्चिम घाट ईकॉलोजी एक्स्पर्ट पेनल (WGEEP) की बहुचर्चित रिपोर्ट है जिसे ‘माधव गाडगिल कमेटी’ के नाम से जाना जाता है। इसस रिपोर्ट ने स्पष्ट रूप से ये निर्धारित किया कि अथिरप्पली परियोजना, जैव विविधता से भरपूर, पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र (इको-सेंस्टिव झोन-1) में स्तिथ है, अवांछनीय है और साथ ही पर्यावरण, तकनीकि और आर्थिक मानकों पर निरर्थक है।
जैसा कि आदिवासी समूहों और पर्यावरणविद ने दर्शाया है, ये प्रस्ताव वन अधिकार अधिनियम, 2006 का सीधा-सीधा उल्लंघन है और परियोजना को मिली पुरानी मंजूरी, पारंपरिक आदिवासी समुदाय (कदर समुदाय) को 2014 में 40,000 हेक्टेयर जंगल के सामुदायिक वन अधिकार के तहत मिले पट्टों के चलते, अब अमान्य है। 9 ग्राम सभा, जो अथिरप्पली पंचायत में वैधानिक रूप से इस सामुदायिक वन अधिकार की हक़दार हैं, उन्होंने इस परियोजना के विरोध में निर्णायक प्रस्ताव पारित किया है और वन अधिकार अधिनियम के खंड 5(d) के अनुसार के.एस.ई.बी.(KSEB) के द्वारा इसका सम्मान करना जरूरी है। इस अधिनियम के अनुसार, ग्राम सभा का ये अधिकार, कि ‘वो सामुदायिक वन संपदा तक पहुँच को नियंत्रित करे और ऐसी कोई भी गतिविधि को रोके जो वन्य प्राणी, जंगल या जैव विविधता के उपर विपरीत परिणाम करे’, का किसी भी कीमत पर पालन होना जरूरी है। ये विडम्बना है और गहरी तकलीफ़ देने वाली बात भी कि जो वन अधिकार अधिनियम संसद में वामपंथी दलों (सी.पी.एम सहित) की सक्रिय भागीदारी और समर्थन से पारित हुआ था, उसका इस तत्कालीन संदर्भ में पालन नहीं हो रहा और इस बात की उपेक्षा की जा रही है।
2018 और 2019 में दो बड़ी बाढों का सामना करने के बाद, राज्य के लिए अपनी नाज़ुक इकॉलोजी को और नुकसान पहुँचने देना घातक हो सकता है, खासतौर से अथिरप्पली-वायछल फ़ैलाव में। ये दर्ज़ सच्चाई है कि 2018 की बाढ के दौरान, सबसे ज्यादा पानी जो निकला वो पैरिंगलककुथू जलाशय (चालकुडी नदी के पास) के दरवाज़े खुलने के कारण था, जिससे प्रति सैंकड दस लाख लीटर पानी निकल रहा था। केरल को जो अभूतपूर्व सैलाब भुगतना पड़ा, सरकार की आंखे खोलने के लिए पर्याप्त है और इस तटीय राज्य को खतरे में डालने वाली, पर्यावरणीय दृष्टिकोण से नुकसानदायक सभी ‘विकास परियोजनाओं’ का दोबारा आंकलन करना तत्काल जरूरी है !
हम कुछ जगहों से आती उन खबरों से भी चिंतित हैं कि के.एस.ई.बी और भी बांध बनवाने की अपनी योजना को आगे बढाना चाहता है, जिसमें चालकुडी-शोलयार टेल-रेस और पैरिंगलकुथू राईट बैंक शामिल है, और जिससे परमबुक्कुलम टाइगर रिजर्व के मध्यवर्ती क्षेत्र की वन जमीन के विस्तृत भाग पानी में डुबने की संभावना है। दुनियाभर के अनुभवों ने ये दर्शाया है कि बढे जलाशय, बाढ से निपटने के एकमात्र या प्रभावी उपाय नहीं हैं। केरल को नए बांधों की जरूरत नहीं है, पर बाढ से निपटने के प्रभावी उपाय चाहिए जो स्थानीय तटीय पारिस्तथिक प्रसंग को समझें।
कुछ समाचार माध्यम इस तरफ़ भी इशारा कर रहे हैं कि राज्य सरकार द्वारा ‘NOC’ का तत्कालीन संदर्भ, प्रधानमंत्री के साथ हाल में विद्युत परियोजनाओं की समीक्षा के लिए हुई बैठक हो सकती है, जिसमें ये सवाल उठा था कि ‘अथिरप्पली परियोजना लागू क्यों नहीं हो रही जबकि उसके लिए MoEF और CEA की ‘पूर्व स्वीकृति’ मिली हुई है’। राज्य ने केन्द्र सरकार के साथ टकराव से बचने के लिए इस परियोजना को पुनःजीवित किया जा रहा है, ऐसी भी एक वाद है। हम कहना चाहेंगे कि केंद्र सरकार को संघीय निर्णयों का सम्मान करना चाहिए और राज्य सरकार के उपर अपने निर्णय थोपना नहीं चाहिए, खास कर जब उस राज्य की जनता का विरोध या असहमती है।
अगर तमाम आपत्तियों के बावजूद, जिसमें जनता का व्यापक विरोध, विरोधी दलों के द्वारा उठाई आपत्तियां, जिसमें सी.पी.आई (जो सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा हैं) भी शामिल है, संरक्षणकर्ता, विशेषज्ञ, पूर्व अधिकारियों का विश्लेषण और सबसे महत्वपूर्ण – आदिवासी समुदाय का विरोध, जिनके घर, परिवेश और जीवन पर इस परियोजना का गहरा परिणाम पड़ेगा, इस परियोजना को आग बढने की अनुमति दी जाएगी, तो वह एक अपरिवर्तीय अन्याय होगा |
हम केरल के मुख्यमंत्री से ये मांग करते हैं कि तुरंत एक लिखित घोषणा करके इस घातक परियोजना को हमेशा के लिए बंद करें और राज्य सरकार वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत आदिवासियों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की फ़िर से पुष्टि करें| साथ ही पर्यावरण संरक्षण के प्रति भी कटिबद्धता दिखाए | इससे, लेफ़्ट डेमोक्रेटिक फ़्रंट द्वारा चुनाव से समय किए गए वादे, जिनमें उन्होंने नदिओं के संरक्षण के लिए कदम उठाने और उनमें बहते पानी को बेहतर बनाने के लिए कदम उठाने की बात थी, के लिए उनकी प्रतिबद्धता भी साबित होगी।
हम अथिरप्पली के आदिवासियों के प्रतिरोध का बेहिचक समर्थन करते हैं और राज्य के सामाजिक कार्यकर्ताओं और पर्यावरणविदों के साथ खड़े हैं, जो एक हरित और सुरक्षित केरल के लिए गहरी चिंता में हैं। हम केन्द्र सरकार को भी ये चेतावनी देते हैं कि केरल के लिए तय विद्युत का आबंटन पूर्व-निर्धारित योजना के अनुसार जारी रहना चाहिए और केरल सरकार के अथिरप्पली परियोजना को लागू (न) करने संबंधी निर्णय का कोई विपरीत परिणाम नहीं होना चाहिए।
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