विकलांगता के साथ जी रहे व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 में  प्रस्तावित घातक संशोधनों को वापस लो 

विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 का उल्लंघन करने वाली इकाइयों को ज़िम्मेदार ठहराने वाले दंडात्मक प्रावधानों को कमज़ोर करने के प्रयास का विरोध करो !

‘व्यापार की भावना’ से ज्यादा, हाशिये पर जी रहे लोगों के अधिकारों को सम्मान दो !

सरपरस्ती ‘दिव्यांग राजनीती बंद करो! अभिगम्यता को मौलिक अधिकार के रूप में सुनिश्चित करो!

5 जुलाई, 2020: दशकों के कठिन संघर्ष के बाद प्राप्त हुए नागरिक अधिकारों में, वर्तमान सरकार द्वारा खतरनाक बदलाव लाने के प्रयासों के प्रति जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय अपनी तीव्र नाराज़गी व्यक्त करता है। कोविड और लॉकडाउन के दौरान भी, हम देख रहे हैं कि सरकार पर्यावरण, श्रम, ऊर्जा, खेती, ट्रांसजेंडर अधिकारों और कई अन्य कानूनों में ‘प्रस्तावित संशोधनों’ के मध्यम से समस्याप्रद बदलाव लाने की कोशिश कर रही है।

‘कोविड पर्यंत अर्थव्यवस्था पुनर्निर्माण रणनीति’ के अंश के रूप में, अब केंद्र सरकार ने जल्दबाजी में विकलांगता के साथ जी रहे व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 (विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016) में संशोधन का प्रस्ताव रखा है। यह एक ऐसा अधिनियम है, जिसके पीछे देश भर के विकलांगता के साथ जी रहे लोगों के कई दशकों के संघर्ष का दुख:द इतिहास है। ध्यान देने योग्य है कि पिछले 4 वर्षों में इस अधिनियम को ठीक से लागू करने का तो कोई प्रयास किया नहीं गया, बल्कि अब सरकार इसके प्रावधानों में संशोधन करना चाहती है क्योंकि यह ‘व्यापारिक भावनाओं’ और घरेलू तथा विदेशी निवेशकों से निवेश लाने को प्रभावित कर रहा है! इसलिए, अधिनियम के अंतर्गत एक सक्षम और सशक्त माहौल बनाने के बजाये, मोदी सरकार हमारे समाज के सबसे हाशिये के और नज़रंदाज़ किये गए वर्ग पर छिप कर हमला करने की तैयारी में है।

इस अधिनियम के दंडात्मक प्रावधानों, जो इस कानून के सक्षमता बढ़ाने वाले प्रावधानों के प्रति जवाबदारी सुनिश्चित करते हैं, को कमज़ोर करने के इस प्रयास की हम घोर निंदा करते हैं। अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है, कि केन्द्रीय सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय, जिसकी ज़िम्मेदारी है हाशिये के समुदायों के अधिकारों को सशक्त करना, वही इन प्रतिगामी संशोधनों का ‘नेतृत्व’ कर रहा है! लॉकडाउन के दौरान अत्यंत आपत्तिजनक ‘ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम’, 2019 के नियमों के मसौदे को लागू करवाने के प्रयासों के बाद, अब यह मंत्रालय, विकलांगता सशक्तिकरण विभाग के माध्यम से, विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 में बदलाव करने की मुहीम पर निकला है!

कुछ दिन पहले जो प्रस्ताव मंत्रालय ने पेश किया है उसमें लिखा है कि “व्यापार की भावना को बेहतर बनाने और अदालती प्रक्रियाओं को रद्द करने के लिए छोटे अपराधों को गैर-आपराधिकृत करने की ज़रुरत है” और इस प्रकार यह प्रस्ताव अधिनियम के बुनियादी मूल्यों पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। यह प्रस्तावित संशोधन विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 की धाराओं 89, 92 (a) और 93 में दी गयी सज़ाओं को कम करने का प्रयास करता है, जिसके अंतर्गत कुछ अपराधों के लिए ‘क्षमा दी जा सकेगी’। मौजूदा स्वरुप में इस कानून के अंतर्गत निम्नलिखित सज़ाएं दी गयी हैं:

  1. धारा 89: कोई भी व्यक्ति यदि विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 के प्रावधानों का उल्लंघन करता है, तो पहले उल्लंघन पर रु.10,000 तक का जुर्माना होगा और उसके बाद उल्लंघन होने पर रु. 50,000 से कम का जुर्माना नहीं होगा जो कि रु. 5 लाख तक हो सकता है
  2. धारा 92 (a): जो भी किसी सार्वजानिक स्थान पर किसी विकलांग व्यक्ति का जानबूझ कर अपमान करेगा या अपमानित करने के इरादे से धमकाएगा, उसे कम से कम छः माह की कैद की सज़ा हो सकती है जिसे 5 वर्ष कैद और जुर्माने तक बढ़ाया जा सकता है
  3. धारा 93: जो भी विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 के अंतर्गत ज़रूरी दस्तावेज़ या जानकारी उपलब्ध नहीं कराएगा, उसे प्रत्येक अपराध के संदर्भ में रु. 25,000 जुर्माना और लगातार उपलब्ध न कराये जाने या मना करने पर, प्रत्येक दिन के लिए रु.1000 जुर्माना हो सकता है

प्रस्तावित संशोधन में एक नयी धारा 95-A शामिल करने का सुझाव है जिसके अंतर्गत धारा 89, 92(a) और 93 के अंतर्गत अपराधों के लिए, कार्यवाही शुरू होने से पहले या बाद में, विकलांगता के साथ जी रहे व्यक्तियों के लिए मुख्य आयुक्त द्वारा, जिस व्यक्ति के साथ अपराध हुआ है उसकी ‘सहमती’ से ‘क्षमा दी जा सकती है’, और इसके बदले ऐसी राशि तय की जा सकती है, जिसे केंद्र सरकार ने इस संदर्भ में निर्धारित किया होजहाँ अपराध के लिए क्षमा दी जा चुकी हो, वहां अपराधी, यदि कैद में हो, तो उसे छोड़ दिया जायेगा और इस अपराध से संबंधित सभी न्यायिक प्रक्रियाएं रद्द कर दी जाएगी |

कई वर्षों से विकलांगता पर काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं का मत है कि कानून के प्रावधानों के उल्लंघन के लिए दंडात्मक प्रावधान जो किसी हाशियाकृत समुदाय को सक्षमता प्रदान करते हों, उन्हें ‘रूकावट’ की नज़र से नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि उन्हें अनुपालना के लिए ज़रूरी समझा जाना चाहिए, जो कि एक समावेशी और सतत समाज बनाने में मदद करेंगे। इन सजाओं को कम करना, विकलांगता के साथ जी रहे व्यक्तियों के खिलाफ अपात्तिजनक व्यवहार को मान्यता देने के बराबर है और यह सार्वजानिक तथा काम की जगहों को उनके लिए और ज़्यादा असुरक्षित तथा अगम्य बना देता है। निरादर के खिलाफ प्रावधान वैसे भी सीमित है, क्योंकि उसे केवल तभी इस्तेमाल किया जा सकता है जब ऐसा व्यवहार सार्वजनिक जगह पर हुआ हो। इस पर भी समझौता करने का मतलब है लाखों विकलांगता के साथ जी रहे लोगों की गरिमा का अपमान करना।

यहाँ ध्यान देना ज़रूरी है कि पिछले दो दशकों से ज़्यादा समय से, प्रभावशाली दंडात्मक प्रावधान न होना एक मुख्य कारण था कि (अब रद्द किये जा चुके) विकलांगता के साथ जी रहे व्यक्ति अधिनियम, 1995 के विभिन्न प्रावधानों को लागू नहीं किया जा सका था। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) से विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 के इन प्रावधानों के अंतर्गत पंजीकृत मामलों की संख्या और उनके लिए दी गयी सज़ाओं की सही और विश्वसनीय जानकारी के बिना यह संशोधन बिलकुल निरर्थक हैं।

शुरुआत में, इन प्रस्तावित संशोधनों पर टिप्पणियां देने का ‘आमंत्रण’ (जून अंत का पत्र) सिर्फ 7 संस्थाओं के लिए था, वह भी जो ज़्यादातर दिल्ली-स्थित हैं | सामाजिक न्याय मंत्रालय की इस पहल की आलोचना करने के बाद, दो दिन पहले मंत्रालय ने अपनी वेबसाइट पर प्रस्ताव उपलब्ध कराया जिस पर ‘सार्वजानिक प्रतिक्रियाएं मांगी’ गई हैं। लेकिन, 10 जुलाई तक प्रतिक्रियाएं देने की अंतिम तारिख बिलकुल भी पर्याप्त नहीं है! इस कदम के लिए राज्य के विकलांगता आयुक्तों से भी विमर्श नहीं किया गया। इसके अलावा प्रकाशित प्रस्ताव सभी के लिए पढना आसन नहीं है, क्योंकि इसे सभी आधिकारिक भाषाओं में नहीं दिया गया है, ब्रेल लिपी मैं नहीं है, स्पर्श भाषा नहीं है, बड़े अक्षरों में नहीं है, सुगम मल्टी-मीडिया नहीं है, लिखित, ऑडियो, विडियो दृश्यात्मक प्रदर्शन, सांकेतिक भाषा, सामान्य भाषा, ह्यूमन रीडर, संवर्धित और वैकल्पिक मोड और सुलभ जानकारी व संचार तकनीक नहीं है।

दुःख की बात है कि विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 को संयुक्त राष्ट्र विकलांगता अधिकार कन्वेन्शन, 2006 के अनुसार प्रभावकारी तरीके से कभी लागू नहीं किया गया। विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 भारत सरकार की अंतर्राष्ट्रीय कानून के अंतर्गत प्रतिबद्धता है, जिसके अनुसार उसे संयुक्त राष्ट्र सम्मलेन (जिसे भारत ने अक्तूबर 2007 में स्वीकार किया था) के प्रावधानों की अनुपालना करनी है। लेकिन अधिनियम के कई पहलू जिसमें सरकारी भवनों में आने-जाने की सुगमता, समाज में सम्पूर्ण और प्रभावकारी भागीदारी और समावेश, उचित बजट सुनिश्चित करना और आवश्यक निगरानी के लिए बुनियादी ढाँचे स्थापित करना शामिल था, उन्हें लागू नहीं किया गया है।

‘व्यापार करने में आसानी’ का यह मतलब नहीं होना चाहिए कि हाशिये पर जी रहे लोगों के कड़ी संघर्ष से प्राप्त किये गए अधिकारों और गरिमा को घिनौने तरीके से नकारा जाए। लोगों की, उनके द्वारा (चलाया जाने वाला) और उनके लिए लोकतंत्र बनने के बजाए, वर्तमान सरकार भारत को कॉर्पोरेट और विशाल व्यापारियों का, उनके द्वारा (चलाया जाने वाला) और उनके लिए देश बनाने पर तुली हुई है! धाराओं 89, 92(a) और 93 में संशोधन करके, सरकार विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 के उन सीमित साधनों को भी हटाने का प्रयास कर रही है जो उसकी अनुपालना करवाने के लिए ज़रूरी हैं। यह कदम संविधान की धारा 14,15,19 और 21 में दिए गए गरिमा, समानता, गैर-भेदभाव, स्वतंत्र आवा-जाही और जीवन के अधिकार से भी, विकलांगता के साथ जी रहे लोगों को वंचित करता है।

संखियिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन के केन्द्रीय मंत्रालय ने, 2018 की एक रिपोर्ट में इंगित किया है कि विकलांगता के साथ जी रहे लोग हमारी कुल जनसंख्या का 2.2 प्रतिशत हिस्सा हैं, जो कि एक विशाल संख्या है। सरकार ऐसी लापरवाही से ऐसे संशोधन नहीं ला सकती जिससे लगभग 2.68 करोड़ लोग प्रभावित होंगे। अगर ‘दिव्यांग’ और ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ जैसी सरपरस्ती से भरी बयान-बाजी के बाद भी विकलांगता के साथ जी रहे लोग और ज़्यादा हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं, तो यह केवल इस सरकार की निष्ठुरता / निर्दयता को उजागर करता है।

जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय स्पष्ट रूप से इन संशोधनों का विरोध करता है और भारत सरकार से मांग करता है कि वह विकलांगता समुदाय के अनुभवों और मुद्दों को सुने और तुरंत इन संशोधनों को वापस ले, जो उनकी सलामती पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

हमारी मांग है कि विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 में ऐसा कोई भी संशोधन न हो जो संयुक राष्ट्र कन्वेन्शन का उल्लंघन करता हो और जिसमें विकलांगता समुदाय और उनके सहयोगियों के साथ व्यापक, समावेशी और सुलभ विमर्श न हो | इसके बजाए, इस अधिनियम को संयुक्त राष्ट्र सम्मलेन के ढांचे के अंतर्गत पूर्ण रूप से लागू किया जाए।  

हम सभी विकलांगता के साथ जी रहे लोगों, विकलांगता अधिकार संगठनों और कार्यकर्ताओं के साथ खड़े हैं जो विकलांगता अधिकार अधिनियम, 2016 के दंडात्मक प्रावधानों को रद्द करने के खिलाफ वैध संघर्ष कर रहे हैं।

हम सभी सहयोगी राजनीतिक पार्टियों, राज्य सरकारों और अन्य सामाजिक – राजनैतिक संस्थाओं और यूनियनों से अपील करते हैं कि वे इन अत्यंत घातक संशोधनों के खिलाफ खड़े हों और विकलांगता के साथ जी रहे लोगों की आवाज़ को और बुलंद करें।

और अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें: ई-मेल: napmindia@gmail.com

Image Source: https://thediplomat.com/2018/08/disability-in-india-is-still-all-about-the-able/

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