शोषण, सैन्यकरण और कॉर्पोरेट लूट के ख़िलाफ़ संघर्ष जारी रहे  !

5 अगस्त, 2020; भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 के हटाए जाने की पहली वर्षगांठ का दिन है, जिस दिन से देश के एकमात्र मुस्लिम बहुमत वाले राज्य जम्मू और कश्मीर की राजनीतिक स्वायत्तता को छीन लिया गया, जिसने जम्मू-कश्मीर के लोगों के भविष्य को गंभीर खतरे में डाला और भारत के संघीय ढाँचे पर भारी प्रहार किया। जहाँ सरकार ‘आतंकवाद पर प्रहार’ और ‘राज्य के विकास और भारत से एकीकरण’ के दावों द्वारा इस कदम के ‘सकारात्मक प्रभावों’ को गिनाने में व्यस्त है, वहीं इस कदम की ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और नज़र आती है।

पिछले साल लिए गए इस कदम के बाद कश्मीर में अभूतपूर्व तरीके से संचार के तमाम माध्यम बाधित किये गए, सैन्य तैनाती व निगरानी को बड़े पैमाने पे बढ़ाया गया, मीडिया पर अंकुश लगाए गए और तमाम राजनीतिक नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई। इसका सम्मिलित असर यह रहा कि कश्मीर के आर्थिक हालात में भारी गिरावट दर्ज हुई और घाटी के लोगों की जीविका पर इसका बेहद ख़राब असर पड़ा। महामारी के प्रभाव में अतिरिक्त लॉकडाउन ने चिकित्सा सुविधाओं और कोविद से संबंधित जानकारी की पहुँच को भी प्रभावित किया। घाटी के लोग जिस संचारिक अलगाव को झेल रहे हैं उसके बीच ऐसे क़दमों ने मानसिक स्वास्थय सम्बन्धी परेशानियों को और जटिल किया है। भारत से ‘एकीकरण’ तो दूर, इस क़दम ने कश्मीरियों को भारत से पहले से कहीं अधिक अलग-थलग कर दिया है।

1948 में भारत सरकार और कश्मीरी शासक के बीच जो ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन’ (अधिमिलन पत्र) पर लिखित सहमती बनी, उसमें वर्णित शर्तों का अनुच्छेद 370 एक संवैधानिक प्रमाण है। इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन के साथ जोड़े गए इस अनुच्छेद के द्वारा भारतीय संसद को केवल रक्षा, विदेश व संचार से जुड़े मामलों पर जम्मू और कश्मीर के लिए कानून बनाने की शक्ति मिली। कश्मीर एकमात्र ऐसा राज्य नहीं है जिसके लिए गणतंत्र के शुरुआती वर्षों में या बाद में इस तरह विशेष प्रावधान रखे गए हैं। अनुच्छेद 371-ए के तहत, नागालैंड को विशेष दर्जा प्राप्त है और भारतीय संसद द्वारा पारित कोई भी अधिनियम नागालैंड में सीधे लागू नहीं हो जाता, जब तक कि नागालैंड की विधान सभा इससे सम्बंधित निर्णय नहीं लेती, अगर यह अधिनियम नागाओं की धार्मिक व सामाजिक प्रथाओं, नागा प्रथागत क़ानूनों या नागालैंड की भूमि व संसाधनों के स्वामित्व व हस्तांतरण से सम्बंधित है। विशिष्ट क्षेत्रों को दिए गए विशेष प्रावधानों के साथ छेड़-छाड़ भा.ज.पा की ‘एक राष्ट्र, एक धर्म, एक संस्कृति’ की हिंदुत्ववादी परियोजना का ही एक रूप है।

जम्मू-कश्मीर के सन्दर्भ में देखें तो अनुच्छेद 370 की बुनावट और संकल्पना के साथ शुरुआत से ही छेड़छाड़ हुई है। 1954 के राष्ट्रपति के आदेश द्वारा, लगभग पूरे भारतीय संविधान (अधिकांश संवैधानिक संशोधनों सहित) को जम्मू-कश्मीर पर लागू कर दिया है। यूनियन लिस्ट (संघ-सूची) की 97 में से 94 प्रविष्टियों को पिछले साल अनुच्छेद 370 में बदलाव होने से पहले ही लागू कर दिया गया था। राजनैतिक रूप से, तमाम सरकारों द्वारा कश्मीरी लोगों को छला गया। भारत में अक्सेशन के दौरान जिस जनमत-संग्रह का वादा किया गया था, वह कभी नहीं कराया गया, और कश्मीरी नेता शेख़ अब्दुल्लाह को 11 साल की क़ैद हुई।

कश्मीर में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकारें खारिज कर दी गयीं और भारत समर्थक सरकारों को जगह देने के लिए चुनावों में लगातार धांधली की गई। बार-बार मिले विश्वासघात के कारण कश्मीर में उग्रवाद को बढ़ावा मिला, और परिणाम-स्वरुप कश्मीरियों को क्रूर सैन्य उत्पीड़न – बलात्कार, हत्या, लोगों का ‘गायब होना’ और निरंतर निगरानी का सामना करना पड़ा है। कुनान-पोशपोरा का सामूहिक बलात्कार, 2001 के संसद- हमले के बाद भारतीय लोगों की ‘सामूहिक भावनाओं’ के चलते अफ़ज़ल गुरु को दी गयी फांसी (जबकि अफ़ज़ल की भागीदारी के केवल परिस्थितिजन्य साक्ष्य मौजूद थे), और नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में कश्मीर में पेलेट गन द्वारा हुए हमले, भारत और कश्मीर के संबंधों पर कालिख़ के रूप में मौजूद हैं। इन सभी विश्वासघातों के बावजूद, धारा 370 ने इस सम्बन्ध की ऐतिहासिक विशिष्टता को बनाए रखने में मदद की।

एक तरफ ‘मुख्यधारा’ के भारतीय शिक्षाविदों और यहाँ तक ​​कि ‘सिविल सोसाइटी संगठनों’ ने भी कश्मीरी लोगों के अधिकारों के लिए पर्याप्त रूप से आवाज़ नहीं उठायी, वहीं दूसरी तरफ मीडिया और संस्कृति उद्योग सदा से कश्मीरियों और भारत-कश्मीर समीकरणों को गलत तरीके से प्रस्तुत करता रहा है। न्यायालयों ने भी कश्मीर का विश्वास बनाए नहीं रखा। धारा 370 से छेड़छाड़ पूरी तरह असंवैधानिक थी। इसका निरस्तीकरण कश्मीरी लोगों की सहमति के बिना नहीं किया जा सकता था। फिर भी, भारतीय न्यायालय इस फैसले को ख़ारिज करने में विफल रहे। इस सम उच्चतम न्यायालय में इस फैसले के ख़िलाफ़ 23 याचिकाएं लंबित हैं। पिछले एक साल में तमाम याचिकाओं द्वारा घाटी में इंटरनेट सेवा न देने, संचार माध्यम और आवा-जाही को बाधित करते फैसलों की संवैधानिकता पर सवाल उठाया गया। हालाँकि न्यायालयों ने यह स्वीकार किया है कि अभिव्यक्ति व आंदोलन की स्वतंत्रता को बाधित करना मौलिक अधिकारों का हनन है, मगर फिर भी इन फैसलों को पलटा नहीं गया!

जम्मू-कश्मीर, लद्दाख और समस्त भारत इस समय एक अनिश्चित भविष्य की ओर देख रहे हैं। अनुच्छेद 370 के साथ अनुच्छेद 35-A को अप्रभावी कर देना ‘सुरक्षा’ व ‘विकास’ के नाम पर कश्मीर को भारतीय सैन्य बल व बड़े उद्योगपतियों के हाथ कर देने के सामान है। इससे 1950 के उन ऐतिहासिक लैंड रिफार्म (भूमि सुधार) कार्यों पर भी आघात होगा जिनके कारण कश्मीर में भारत के कई राज्यों से बेहतर सामाजिक-आर्थिक परिणाम देखे गए। कश्मीर जिस अलगाव, प्रतिबन्ध, निगरानी व सरकारी दमन को झेलने को मजबूर है, उसका कोई अंत होता नहीं दिखता।

लद्दाख के निवासियों के राजनैतिक अधिकार छिन जाना भी स्वीकार्य नहीं है। जहाँ तक भारत का सवाल है, इस क़दम से न सिर्फ उसकी फ़ेडरल (संघीय) परिकल्पना को झटका लगता है बल्कि इस क्षेत्र और पूरे दक्षिण-एशिया की भू-राजनीती भी संकट में आती है। सीमायी-संघर्षों से घिरे एक क्षेत्र के लोगों को इस तरह अलग-थलग किया जाना, उन ‘राष्ट्रीय-सुरक्षा’ की चिंताओं के भी ख़िलाफ़ जाता है, जिनका हवाला इस सरकार द्वारा अकसर दिया जाता है।

  • NAPM जम्मू-कश्मीर के लोगों के जुझारूपन और प्रतिरोध को सलाम करता है और उनके साथ एकजुटता व्यक्त करता है।
  • हम मौजूदा सरकार के उन सभी निर्णयों की कड़ी निंदा करते हैं जिनके कारण इस क्षेत्र के लोगों की राजनीतिक स्वायत्तता और आकांक्षाओं को तोड़ा गया है।
  • हम भारत सरकार और देश की न्यायपालिका सहित समस्त संस्थानों से अनुरोध करते हैं कि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा बहाल करने, क्षेत्र में विसैन्यीकरण की दिशा में कदम उठाया जाए और कश्मीरी लोगों से भारत द्वारा किए गए वादों को पूरा करने की तरफ क़दम उठाए जाएं।
  • भारतीय जनतंत्र के जीवित होने या न होने का एक मुख्य प्रमाण जम्मू-कश्मीर के लोगों के अधिकारों के प्रति उसकी प्रतिबध्दता है।
  • हम इस देश के नागरिकों से आह्वान करते हैं कि वे इस क्षेत्र में क्रूरता और विश्वासघात के इतिहास को समझें और घाटी के लोगों के साथ, उनके शांतिपूर्ण और न्यायपूर्ण भविष्य की कामना के लिए खड़े हों।

जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (NAPM)

Image Source: https://newstrack.com/india/end-article-370-big-day-for-jammu-and-kashmir-642045.html

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